रविवार, 25 मार्च 2012

"कुछ यूँ ही "


"गर्म फेफड़े की धौकनी में 
कुछ धुवां - धुवां सा बाकी  है ,
बाहर के  कुहासे की सघनता तीव्र जो है !
वहीं कहीं ,
तालाब की कुछ मछलियाँ, 
हवा में उड़ने का करतब सीखती हैं ;
और तड़प तड़प के मरती हैं !
मैं निस्तब्ध बैठा,
आँखों की हरियाली  के बीच,
अपने पैरों के रोवों को खुरच खुरच कर   ,
मानवता  की पपड़ी छीलता हूँ,
परजीवियों के लिए खून  मुहैया करवाता हूँ !
गोल गोल घूमता , 
गतिशीलता के भ्रम में मगन, 
बढ़ती झुर्रियों में जीता पथिक ,
मस्तिष्क की कड़ाही में पकाता,
बासी पड़ चुके कदमों की बिरयानी!
बस एक ही आश्चर्य,
आखिर उसका स्नायु तंत्र 
अपनी ही पसंदगी के छुवन को क्यों पहचानता है ?
खैर, 
एक और फसल कट चुकी है ,
चारो तरफ असमंजस है, 
भूमि की उर्वरता की उम्र  को लेकर ,
आखिर कोई यूँ ही नहीं छोड़ देता ,
"निचोड़ना" ! 
बुरा क्या है ?
यही तो जिन्दगी है, 
और ऐसे ही बीतती रहती है !"
-------------------------------------संतोष (सारंगपाणि)   !

9 टिप्‍पणियां:

  1. parjeeviyon ke liye khun muhaiya karwaata hai...
    wah kya baat hai...sadhuwad

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  2. तालाब की कुछ मछलियां... हवा में उड़ने का करतब सीखती है ...और तड़प-तड़प के मरती है ... बढ़िया लिखा है ... भाव और कथ्य सघन है... अगली रचना का इंतजार रहेगा ...

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  3. तालाब की कुछ मछलियाँ,
    हवा में उड़ने का करतब सीखती हैं ;
    और तड़प तड़प के मरती हैं !



    अपने पैरों के रोवों को खुरच खुरच कर ,
    मानवता की पपड़ी छीलता हूँ,
    परजीवियों के लिए खून मुहैया करवाता हूँ !

    "निचोड़ना" !
    बुरा क्या है ?
    यही तो जिन्दगी है,
    और ऐसे ही बीतती रहती है !"

    संतोष भाई बहुत ही उम्दा कविता है ....सच कहूँ तो दिल को छू गयी ...एकदम करीब से जाती हुई !

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  4. बस इतना कहूँगा संतोष जी की कविता तत्सम शब्दों की मुहताज नहीं है. जिस भाषा में बाक़ी सब आप लिखते हैं उसी भाषा में लिखिए. देखिये क्या गजब रवानी आती है

    खूब शुभकामनाएं और बधाई...

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  5. इतना दर्द और निराशा एक साथ...

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  6. संतोष भाई....तुम उम्मीदों पर खरा उतरे..बिल्कुल अपने सरोकारों के अनुकूल...आज मौजूदा हालात बयान किये हैं, कल उसे बदलने की तरकीबें भी सुनने को मिलेंगी...हां, इन हालातों को देख,सुन,पढ़ कर अवसाद तो होता ही है...लेकिन कदम आगे बढ़ने ही होंगे..यही नियती है..यही उद्देश्य भी.

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  7. पहली बात तो ये कि ब्लॉग की प्रथम बधाई मेरी थी जाने कैसे आप तक नही आई और दूसरे आप कविता के प्रेरक तत्वों का शुक्रगुजार होइए कि आप भी व्यवस्थित कवि हुए :) कविता वाकई ''धुआँ'' है बाकी अशोक ने जो कहा वह विचारणीय है ..

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  8. आप सभी लोगों का बहुत बहुत आभार !

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