रविवार, 25 मार्च 2012

"कुछ यूँ ही "


"गर्म फेफड़े की धौकनी में 
कुछ धुवां - धुवां सा बाकी  है ,
बाहर के  कुहासे की सघनता तीव्र जो है !
वहीं कहीं ,
तालाब की कुछ मछलियाँ, 
हवा में उड़ने का करतब सीखती हैं ;
और तड़प तड़प के मरती हैं !
मैं निस्तब्ध बैठा,
आँखों की हरियाली  के बीच,
अपने पैरों के रोवों को खुरच खुरच कर   ,
मानवता  की पपड़ी छीलता हूँ,
परजीवियों के लिए खून  मुहैया करवाता हूँ !
गोल गोल घूमता , 
गतिशीलता के भ्रम में मगन, 
बढ़ती झुर्रियों में जीता पथिक ,
मस्तिष्क की कड़ाही में पकाता,
बासी पड़ चुके कदमों की बिरयानी!
बस एक ही आश्चर्य,
आखिर उसका स्नायु तंत्र 
अपनी ही पसंदगी के छुवन को क्यों पहचानता है ?
खैर, 
एक और फसल कट चुकी है ,
चारो तरफ असमंजस है, 
भूमि की उर्वरता की उम्र  को लेकर ,
आखिर कोई यूँ ही नहीं छोड़ देता ,
"निचोड़ना" ! 
बुरा क्या है ?
यही तो जिन्दगी है, 
और ऐसे ही बीतती रहती है !"
-------------------------------------संतोष (सारंगपाणि)   !