"गर्म फेफड़े की धौकनी में
कुछ धुवां - धुवां सा बाकी है ,
बाहर के कुहासे की सघनता तीव्र जो है !
वहीं कहीं ,
तालाब की कुछ मछलियाँ,
हवा में उड़ने का करतब सीखती हैं ;
और तड़प तड़प के मरती हैं !
मैं निस्तब्ध बैठा,
आँखों की हरियाली के बीच,
अपने पैरों के रोवों को खुरच खुरच कर ,
मानवता की पपड़ी छीलता हूँ,
परजीवियों के लिए खून मुहैया करवाता हूँ !
गोल गोल घूमता ,
गतिशीलता के भ्रम में मगन,
बढ़ती झुर्रियों में जीता पथिक ,
मस्तिष्क की कड़ाही में पकाता,
बासी पड़ चुके कदमों की बिरयानी!
बस एक ही आश्चर्य,
आखिर उसका स्नायु तंत्र
अपनी ही पसंदगी के छुवन को क्यों पहचानता है ?
खैर,
एक और फसल कट चुकी है ,
चारो तरफ असमंजस है,
भूमि की उर्वरता की उम्र को लेकर ,
आखिर कोई यूँ ही नहीं छोड़ देता ,
"निचोड़ना" !
बुरा क्या है ?
यही तो जिन्दगी है,
और ऐसे ही बीतती रहती है !"
-------------------------------------संतोष (सारंगपाणि) !