बुधवार, 27 फ़रवरी 2013


तू फिर आएगा यहाँ 

वो जो नन्ही लड़की तुझे नहर के इस पार से दिख रही हैं,
क्या तू जानता नहीं कि लड़की और नहर के बीच में,
पानी है , रेत है और पुलिया टूटी हुई है !
आह्लादित घने बादलों के आकाश के नीचे ,
दूर तक फ़ैली हरियाली के मनोरम दृश्यों के बीच,
पिंडलियों तक घुसे कीचड़ का पानी और मिट्टी  ,
रिस रिस कर बिवाईयों के छिद्रों से खून में जा मिलता है ,
और नन्ही लड़की के  चेहरे से ,
धरती की आभा छिटकने लगती है ,
वो तुझे सुन्दर दीखने  लगती है !
तू टोपी पहने गुनगुनाता है ,
दृश्य निहारता है ,सपने देखता है , 
अनगढ़ प्रकृति के उन्माद में खो जाता है ,
बस लड़की की आँख में नहीं झाँक पाता ! 
आँख के दर्द का शरीर की दमक का पुराना रिश्ता है,
और आँख में सपनों की चमक आने तक,
उस लड़की के वक्र  की सुघड़ता  गायब हो चुकी होगी !
लेकिन मैं जानता हूँ कि ,
तू फिर इस देस में आएगा ,
किसी और समय और कुछ इसी तरह के मौसम में,
चिंता तो तुझे है नहीं,
क्यूंकि कोई न कोई नन्ही लड़की ,
उन खेतों में जरुर होगी -जरुर होगी !
.............................................................संतोष ( 28 फरवरी , 2013)

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

कसम से

" जब तेरी मखमली उँगलियों की छुवन से,
दिल की धड़कनों का ताप बढ़ जाता है ,
कसम से,
क्रांति और विद्रोह के उबाल से 
ये दिल लबरेज हो जाता है ;
चमड़ी-चमड़ी , खून-खून का भेद मिट जाता है, और 
दिल को दिल से प्यार हो जाता है;
उस पल  को इस दिल से बड़ा  साम्यवादी ,
इस जहाँ में कोई और नहीं होता है !
कसम से,
दिल का मिजाज़ भी अजीब होता है,
सुबह सुबह मोहबत्त की यादों को बाथरूम में धो डालता है, और 
दिन भर उन फैक्ट्रियों में गुम हो जाता है,
जहाँ लेन देन तो इंसानी जरूरियात का होता है ,
मगर कारोबार तो आदमियत के एहसास का होता है !
फिर भी, कसम से,
कई बार तो दिल दिन भर घुमड़ घुमड़ के घुमड़ता है,
हवाई जहाज से सड़कों का सफ़र करने वाली,
उस नीली आँखों वाली लडकी के साथ,
नग्न होकर आलीशान ओनसेन के पारदर्शी गर्म पानी में,
घंटों गुजार देने के हसीन चाह में,
दिल मानता ही नहीं कि क्रांति तो एक सपना भर है, और 
बिना डॉलर के इस नयी दुनिया के रास्ते कठिन हुआ करते हैं !
कसम से ,
फिर तो दिल गजब की पलटी मारता है,
उसका जानेमन को बागी बना देने का दिल करता है,
पुकारता है वो बड़ी उम्मीद से,
आ ! चल, छोड़ दें इन इंसानों की दुनिया को ,
और साथ साथ किसी जंगल में रायफल लिए भटकते हैं,
हर एक आदिम जात को आधुनिकता से मुक्त करते हुए,
एक-एक गोली अपने सदियों पुराने कंडीशंड दिमाग में दागते हैं,
फिर हड़प्पा युग से भी पहले मौजूद किसी झरने के नीचे बैठ के,
दुनिया की परिभाषा फिर से गढ़ते हुए एक-एक जाम टकराते हैं !
कसम से ! "

................................................संतोष 
ओनसेन= गर्म पानी के सोते का जापानी नाम! 













रविवार, 25 मार्च 2012

"कुछ यूँ ही "


"गर्म फेफड़े की धौकनी में 
कुछ धुवां - धुवां सा बाकी  है ,
बाहर के  कुहासे की सघनता तीव्र जो है !
वहीं कहीं ,
तालाब की कुछ मछलियाँ, 
हवा में उड़ने का करतब सीखती हैं ;
और तड़प तड़प के मरती हैं !
मैं निस्तब्ध बैठा,
आँखों की हरियाली  के बीच,
अपने पैरों के रोवों को खुरच खुरच कर   ,
मानवता  की पपड़ी छीलता हूँ,
परजीवियों के लिए खून  मुहैया करवाता हूँ !
गोल गोल घूमता , 
गतिशीलता के भ्रम में मगन, 
बढ़ती झुर्रियों में जीता पथिक ,
मस्तिष्क की कड़ाही में पकाता,
बासी पड़ चुके कदमों की बिरयानी!
बस एक ही आश्चर्य,
आखिर उसका स्नायु तंत्र 
अपनी ही पसंदगी के छुवन को क्यों पहचानता है ?
खैर, 
एक और फसल कट चुकी है ,
चारो तरफ असमंजस है, 
भूमि की उर्वरता की उम्र  को लेकर ,
आखिर कोई यूँ ही नहीं छोड़ देता ,
"निचोड़ना" ! 
बुरा क्या है ?
यही तो जिन्दगी है, 
और ऐसे ही बीतती रहती है !"
-------------------------------------संतोष (सारंगपाणि)   !